पिछले कुछ महीनों में अमेरिका और भारत का संबंध भरोसे के गहरे संकट में फंसा रहा है। इसकी पृष्ठिभूमि में टैरिफ नीति पर गंभीर मतभेद, रूस के साथ भारत के विशेष रिश्ते और पाकिस्तान के साथ भारत की सीमा झड़पों को लेकर अमेरिकी प्रशासन का रुख शामिल रहा है। राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने बार-बार इस बात पर नाराज़गी जताई कि भारत अमेरिका से आने वाले आयात पर बहुत ऊंचे शुल्क लगाता है। उनके शब्दों में कहें तो 'दुनिया में सबसे ऊंचे शुल्कों में से एक।' इसके जवाब में उन्होंने अमेरिकी टैरिफ बढ़ाकर कुल मिलाकर लगभग 50% तक कर दिए। फिर भी, यह सिर्फ एक मोर्चा था। रूस के साथ घनिष्ठ संबंध रखने वाला और रूसी कच्चे तेल का सबसे बड़ा खरीदार माने जाने वाला भारत, ट्रंप के तीखे शब्दों का शिकार बना। ट्रंप ने रूस और भारत की अर्थव्यवस्थाओं को 'मरी हुई अर्थव्यवस्थाएं' कहते हुए दावा किया कि वे 'एक-दूसरे को कुचल रहे हैं,' और उन पर आरोप लगाया कि उनका आपसी व्यापार मॉस्को की यूक्रेन के खिलाफ युद्ध मशीन को ताकत दे रहा है। इतना ही नहीं, उन्होंने यहां तक कह दिया कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को 'यूक्रेन में मरने वालों की परवाह नहीं है'- यह बयान न केवल व्यक्तिगत अपमान था, बल्कि भारत की उभरती शक्ति की स्थिति को ठेस पहुंचाने वाला भी था।पाकिस्तान के साथ सीमा झड़पों में ट्रंप ने खुद को एक निष्पक्ष मध्यस्थ के रूप में पेश करने की कोशिश की। कहा जाता है कि उन्होंने दोनों पक्षों पर भारी दबाव डाला, प्रतिबंधों की धमकी दी और अंततः युद्धविराम करवा दिया। हालांकि, बाद में पाकिस्तान ने उनकी मध्यस्थता की इतनी सराहना की कि उन्हें नोबेल शांति पुरस्कार देने का प्रस्ताव तक रख दिया। दूसरी ओर, नई दिल्ली ने वाशिंगटन की भूमिका को कमतर आंका, जो दोनों देशों के बीच बढ़ते अविश्वास का एक और संकेत था।
मोदी की कड़ी प्रतिक्रिया केवल आर्थिक और सैन्य तनाव पर आधारित नहीं थी, बल्कि मुख्य रूप से व्यक्तिगत और राष्ट्रीय सम्मान की ठेस पहुंचने से प्रेरित थी। उन्होंने राष्ट्रपति ट्रंप के चार फोन कॉल तक स्वीकार नहीं किए। इसी संदर्भ में, इज़राइल कुछ महत्वपूर्ण सीख सकता है।
खान यूनिस की घटना
25 अगस्त को खान यूनिस के नासेर अस्पताल पर इजरायल का गोला गिरा। इस हमले में लगभग बीस लोग मारे गए, जिनमें पत्रकार भी शामिल थे। कुछ ही घंटों में इज़राइली सेना के प्रवक्ता, सेना प्रमुख और प्रधानमंत्री ने प्रतिक्रिया दी। सेना प्रवक्ता ने अंग्रेज़ी में बयान जारी कर 'निर्दोष नागरिकों' को नुकसान पहुंचने पर माफी मांगी। सेना प्रमुख ने तुरंत जांच शुरू करने की घोषणा की। प्रधानमंत्री ने इस घटना को 'दुर्भाग्यपूर्ण हादसा' बताया और कहा कि इसकी पूरी तरह जांच होगी। इन तीनों बयानों से न केवल अंतरराष्ट्रीय जनमत को शांत करने की इच्छा झलकती थी, बल्कि इस घटना के नतीजों को लेकर गहरी चिंता – और शायद घबराहट भी साफ दिखाई दी। नेताओं ने अपने बयानों से यह संदेश दिया कि निर्दोष नागरिकों की मौत की कुछ जिम्मेदारी वे स्वीकार कर रहे हैं। यह संदेश अंतरराष्ट्रीय कानून के लिहाज़ से खतरनाक मिसाल बन सकता था। हालांकि, बाद की घटनाओं से पता चला कि कई पीड़ित वास्तव में हमास से जुड़े हुए थे। लेकिन पूरी जानकारी आने का इंतज़ार करने के बजाय, इज़राइल ने बाहर की दुनिया में ऐसा संदेश दिया मानो वह ज़िम्मेदारी स्वीकार कर रहा हो और यही उसकी कूटनीतिक और कानूनी स्थिति को कमजोर कर गया।
भारत से सबक
यही वह जगह है जहां हमें मोदी के उदाहरण को देखना चाहिए। ट्रंप के अभूतपूर्व मौखिक हमलों का सामना करते हुए मोदी ने जल्दबाज़ी में माफी नहीं मांगी, बल्कि कड़ा जवाब देकर राष्ट्रीय सम्मान को कायम रखा। उनका तरीका भले ही कठोर लगा हो, लेकिन इससे साफ संदेश गया कि भारत अधीनस्थ या छोटे देश जैसा व्यवहार स्वीकार नहीं करेगा। इसके विपरीत, खान यूनिस घटना में इज़राइल ने ज़रूरत से ज़्यादा पारदर्शिता और चिंता दिखा दी। यह तरीका शायद तुरंत नुकसान को कम करने के लिए था, लेकिन इससे दीर्घकालिक रणनीतिक हितों को नुकसान पहुंच सकता है। निष्कर्ष यह है कि किसी भी देश को कठिन और जटिल परिस्थितियों में भी अपने राष्ट्रीय सम्मान की रक्षा करनी चाहिए। जल्दबाज़ी में ज़िम्मेदारी स्वीकार करना कमजोरी के रूप में देखा जा सकता है और दुश्मन इसका फायदा उठा सकते हैं। ऐसे समय में शब्दों में सावधानी और सिद्धांतों में दृढ़ता बेहद ज़रूरी होती है। भारत से हमें यह सीख मिलती है कि राष्ट्रीय सम्मान कोई विलासिता नहीं, बल्कि दूरगामी रणनीतिक संपत्ति है। यदि इज़राइल अपनी स्थिति और सुरक्षा को मज़बूत करना चाहता है, तो उसे दुनिया के सामने अटल और मज़बूत छवि पेश करनी होगी। इसका मतलब है कि अंतरराष्ट्रीय दबाव चाहे कितना भी हो, माफी जैसे बयान देने में जल्दबाज़ी नहीं करनी चाहिए।