• 28 Jun, 2025

पहाड़ी नृत्य केवल कश्मीर के लिए ही नहीं बल्कि पर्यटकों के लिए भी एक आकर्षण का केंद्र है

पहाड़ी नृत्य केवल कश्मीर के लिए ही नहीं बल्कि पर्यटकों के लिए भी एक आकर्षण का केंद्र है

मध्यप्रदेश जनजातीय संग्रहालय में आयोजित महुआ महोत्सव का समापन

 

भोपाल। मध्यप्रदेश शासन, संस्कृति विभाग एवं दक्षिण मध्य क्षेत्र सांस्कृतिक केन्द्र, नागपुर, उत्तर मध्य क्षेत्र सांस्कृतिक केन्द्र, प्रयागराज और उत्तरप्रदेश शासन, संस्कृति विभाग के सहयोग से मध्यप्रदेश जनजातीय संग्रहालय के 12वें वर्षगाँठ के अवसर पर संग्रहालय में 6 से 10 जून तक प्रतिदिन महुआ महोत्सव आयोजित किया गया, जिसमें मध्यप्रदेश, राजस्थान, उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र राज्यों के नृत्य एवं गोण्ड, भील, बैगा, कोरकू जनजाति के व्यंजन, शिल्प मेला, कठपुतली के खेल का भी संयोजन हुआ। समारोह में दोपहर को श्री विनोद भट्ट-भोपाल द्वारा कठपुतली प्रदर्शन किया गया। जिसमें उन्होंने कई हास्य एवं जागरूकता के संदेश देते हुए विभिन्न कठपुतलियों के माध्यम से प्रदर्शन किया।

जनजातीय व्यंजन का स्वाद

महोत्सव के अवसर पर संग्रहालय परिसर में बने जनजाति आवासों में आमंत्रित कलाकारों द्वारा उनके पारंपरिक व्यंजनों को भी पहली बार  प्रदर्शित एवं विक्रय किया गया, जिसमें भील, गोण्ड, बैगा, कोरकू के व्यंजन का स्वाद पर्यटकों ने लिया। कलाकारों द्वारा मक्का, ज्वार, बाजरा, रागी, कुटकी, कोदो, पान रोटी, दाल पानिया, अरहर, बांस के करील, बांस की पीहरी, चेच भाजी, राई भाजी एवं अन्य व्यंजन को परोसा गया।

शिल्प मेला

महोत्सव में करीब 22 शिल्पीयों द्वारा लकड़ी, वस्त्र, भरेवा, गोबर, जनजातीय आभूषण, बांस, मिट्टी, जनजातीय शिल्प, लोह शिल्प, तोरण, दरी-चादर एवं अन्य को प्रदर्शित एवं विक्रय के लिए प्रस्तुत किया गया।

महोत्सव की संध्या की शुरूआत कलाकारों के स्वागत से की गई। इस दौरान मंच पर निदेशक, जनजातीय लोक कला एवं बोली विकास अकादमी डॉ.धर्मेंद्र पारे उपस्थित रहे। महोत्सव में 10  जून, 2025 को शुरूआत बुन्देली गायन से हुई। भोपाल के श्री फूलसिंह मांडरे एवं साथी, भोपाल द्वारा बुन्देली पारंपरिक लोक गीतों की प्रस्तुति दी गई। उन्होंने विवाह, जन्म एवं अन्य अनुष्ठानों पर आधारित गीतों की प्रस्तुति दी।  इसके बाद महोत्सव में नृत्य प्रस्तुतियों का संयोजन हुआ। जिसमें मटकी नृत्य  सुश्री विनती जैन एवं साथी, मध्यप्रदेश, पहाड़ी नृत्य  सुश्री शमशाद बेगम एवं साथी-काश्मीर, गरासिया जनजातीय गैर नृत्य श्री मावाराम एवं साथी-राजस्थान , गणगौर नृत्य  श्री संजय महाजन  एवं साथी, वड़वाह मध्यप्रदेश, ढेड़िया नृत्य  सुश्री सुप्रिया सिंह, प्रयागराज , उत्तरप्रदेश , ढाल ठुमरी नृत्य  श्री बरलुम्बफा नारजारी एवं साथी, असम, राई नृत्य  श्री प्रहलाद कुर्मी एवं साथी, सागर, मध्यप्रदेश द्वारा प्रस्तुति दी गई।

गरासिया जनजातीय गैर नृत्य/ श्री मावाराम एवं साथी-राजस्थान

गरासिया जनजाति में गैर नृत्य  मेलों, त्योहारों और विशेष अवसरों पर किया जाता है।  यह नृत्य पारंपरिक रूप से पुरुषों द्वारा किया जाता है। पारंपरिक वेशभूषा पहनने के साथ साथ ढोल का प्रयोग करते हुए नृत्य किया जाता है।  गैर नृत्य गणगौर और तीज जैसे त्यौहारों में भी देखा जाता है, जो गरासिया जनजाति के लिए महत्वपूर्ण त्यौहार हैं। 

राई नृत्य श्री प्रहलाद कुर्मी एवं साथी, सागर, मध्यप्रदेश

बुन्देलखण्ड अंचल की अपनी जातीय परम्परा मूलतः शौर्य और श्रृंगार परक है। यह अकारण नहीं है कि बुन्देलखण्ड के प्रख्यात लोकनृत्य राई में एक ओर तीव्र शारीरिक चपलता, बेग, अंग, मुद्राएॅं और समूहन के लयात्मक विन्यास है, वहीं दूसरी ओर नृत्य के लास्य का समावेश और लोक कविता के रूप में उद्याम श्रृंगार परक अर्थो की नियोजना। उसमें ऊर्जा, शक्ति और लालित्य एकमेक है। इस नृत्य को बुन्देलखण्ड में मंचीय नृत्य की स्थिति मात्र में सीमित नहीं किया गया है। बल्कि सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों में बच्चे के जन्म के समय और विवाह के अवसर पर राई नृत्य का आयोजन प्रतिष्ठा मूलक माना जाता है। अनेक बार किसी अभीप्सित कार्य की पूर्ति होने या मनौती होने पर भी राई के आयोजन किये जाते हैं। राई एक जीवन्त कलात्मक हिस्सेदारी की तरह ही है। जीवन का अटूट हिस्सा जिसमें आनंद की स्वच्छंद अभिव्यक्ति मनुष्य की जीवनी शक्ति जैसा प्रकट होता है।

गणगौर नृत्य  श्री संजय महाजन एवं साथी, वड़वाह, मध्यप्रदेश

गणगौर निमाड़ी जन-जीवन का गीति काव्य है। चैत्र दशमी से चैत्र सुदी तृतीया तक पूरे नौ दिनों तक चलने वाले इस गणगौर उत्सव का ऐसा एक भी कार्य नहीं, जो बिना गीत के हो। गणगौर के रथ सजाये जाते हैं, रथ दौड़ाये जाते हैं। इसी अवसर पर गणगौर नृत्य भी किया जाता है। झालरिया दिये जाते हैं। महिला और पुरूष रनुबाई और धणियर सूर्यदेव के रथों को सिर पर रखकर नाचते हैं। ढोल और थाली वाद्य गणगौर के केन्द्र होते हैं। गणगौर निमाड़ के साथ राजस्थान, गुजरात, मालवा में भी उतना ही लोकप्रिय है।

मटकी नृत्य  सुश्री विनती जैन एवं साथी, उज्जैन, मध्यप्रदेश

मालवा में मटकी नाच का अपना अलग परम्परागत स्वरूप है। विभिन्न अवसरों पर मालवा के गाँव की महिलाएँ मटकी नाच करती है। ढोल या ढोलक को एक खास लय जो मटकी के नाम से जानी जाती है, उसकी थाप पर महिलाएँ नृत्य करती है। प्रारम्भ में एक ही महिला नाचती है, इसे झेला कहते हैं। महिलाएँ अपनी परम्परागत मालवी वेशभूष में चेहरे पर घूँघट डाले नृत्य करती हैं। नाचने वाली पहले गीत की कड़ी उठाती है, फिर आसपास की महिलाएँ समूह में कड़ी को दोहराती है। नृत्य में हाथ और पैरों मेंसंचालन दर्शनीय होता है। नृत्य के केद्र में ढोल होता है। ढोल पर मटकी नृत्य की मुख्य ताल है। ढोल किमची और डण्डे से बजाया जाता जाता है। मटकी नाच को कहीं-कहीं आड़ा-खड़ा और रजवाड़ी नाच भी कहते हैं।

पहाड़ी नृत्य / सुश्री शमशाद बेगम एवं साथी-काश्मीर

पहाड़ी नृत्य कश्मीर की संस्कृति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। यह नृत्य विभिन्न अवसरों पर जैसे कि विवाह, त्यौहार और अन्य सामाजिक समारोहों में किया जाता है। इस नृत्य में संगीत और नृत्य का एक सुंदर मिश्रण होता है, जो कश्मीर की संस्कृति की विशिष्टता को दर्शाता है। पहाड़ी नृत्य केवल कश्मीर के स्थानीय लोगों के लिए ही नहीं बल्कि पर्यटकों के लिए भी एक आकर्षण का केंद्र है। यह कश्मीर की सांस्कृतिक विरासत को प्रदर्शित करता है और स्थानीय लोगों के जीवन और परंपराओं का एक प्रतिबिंब है। 

ढाल ठुमरी नृत्य / श्री बरलुम्बफा नारजारी एवं साथी, असम

ढाल (ढोल) ठुमरी एक ऐसा नृत्य है जिसमें ढोल का प्रयोग किया जाता है और ठुमरी गायन शैली के साथ प्रदर्शन किया जाता है। यह शैली नृत्य, नाटकीय हाव-भाव और भावपूर्ण प्रेम कविता से जुड़ी हुई है। यह नृत्य संगीत और नृत्य के बीच एक अनोखा मिश्रण है जो दर्शकों को प्रभावित करता है।

ढेड़िया नृत्य  / सुश्री सुप्रिया सिंह, प्रयागराज , उत्तरप्रदेश

ढेड़िया नृत्य उत्तरप्रदेश का पारंपरिक लोक नृत्य हैं। किवदन्ती के अनुसार जब भगवान श्रीराम, माता सीता व लक्ष्मण वनवास के दौरान प्रयाग संगम दर्शन हेतु पधारे तब कुछ स्त्रियों को संदेह हुआ कि कहीं तीनों वनवासियों के पीछे शनिदेव भी न आ गये हों, तब स्त्रियों ने मिट्टी की छिद्रदार हांडियों में दिये रखकर आरती उतारी थी। तब से यह प्रथा ढेड़िया के नाम से जाना जाता है, जो कालान्तर में ढेड़िया लोक नृत्य के रूप में विकसित हुआ। अश्विन शुक्ल चतुर्दशी के दिन घर की बेटियाँ अपने भाई, पिता, दादा और बड़ों की ढेड़िया से नजर उतारती हैं व मंगल कामना करती हैं।